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शनिवार, 3 सितंबर 2016

क्या है पूना पैक्ट.??






"पूना पैक्ट और आरक्षण"


-अर्चना बौद्ध

क्या है पूना पैक्ट.??


ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने 17 अगस्त 1932 ई० को कम्युनल एवार्ड की घोषणा की उसमें दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया था।

जब गांधी जी को इसकी सूचना मिली, तो उन्होंने इसका विरोध किया और 20 सितम्बर 1932 ई ० को इसके विरोध में यरवदा जेल में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी।

महात्मा गाँधी जहां पृथक निर्वाचन के विरोध में अनशन कर रहे थे वही पर डॉ० अम्बेडकर के समर्थक पृथक निर्वाचान के पक्ष में खुशियाँ मना रहे थे इसलिए दोनों समर्थकों में झड़पें होने लगी। तीसरे दिन गाँधी जी की दशा बिगड़ने लगी तब डॉ.अम्बेडकर पर दबाव बढ़ा कि वह अपनी पृथक निर्वाचन की मांग को वापस ले लें किन्तु उन्होंने अपनी मांग वापस न लेने को कहा। उधर गाँधी जी भी अपने अनशन पर अड़े रहे।

इन दोनों के बीच सर तेज बहादुर सप्रू बात करके कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे। 24 सितम्बर 1932 ई० को सर तेज बहादुर सप्रू ने दोनों से मिलकर एक समझौता तैयार किया जिसमें डॉ.आंबेडकर को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गाँधी जी के दलितों को केन्द्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में दलितों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देना एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देना था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थाओं में दलितों को विशेष सुविधाएं देना भी था। दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गये। 24 सितम्बर 1932 को इस समझौते पर सहमत हो गये। 24 सितम्बर 1932 ई० को इस समझौते पर गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर ने तथा इनके सभी समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए।

इस समझौते को "पूना पैक्ट" कहा गया।

आजकल फेसबुक पर कोई भी मुह उठाकर आरक्षण के विरोध में अपने तर्क एक ज्ञानी की तरह देता है । ज्ञानियों के तर्क कुछ इस प्रकार होते है-

१-आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिएहै

२- आरक्षण से अयोग्य व्यक्ति आगे आते है।

३- आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है।

४- आरक्षण ने ही जातिवाद को जिन्दा रखा है।

५- आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए था।

६- आरक्षण के माध्यम से सवर्ण समाज की वर्तमान पीढ़ी को दंड दिया जा रहा है।

इन ज्ञानियों के तर्कों का जवाब प्रोफ़ेसर विवेक कुमार जी ने दिया है जो इस प्रकार हैं -

१- पहले तर्क का जवाब:-

आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने हेतु सरकार अनेक कार्य क्रम चला रही है और अगर चाहे तो सरकार इन निर्धनों के लिए और भी कई कार्यक्रम चला सकती है। परन्तु आरक्षण हजारों साल से सत्ता एवं संसाधनों से वंचित किये गए समाज के स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है। प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान की धरा 16 (4) तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332 एवं 335 के तहत कुछ जाति विशेष को दिया गया है।

२- दूसरे तर्क का जवाब

योग्यता कुछ और नहीं परीक्षा के प्राप्त अंक के प्रतिशत को कहते हैं। जहाँ प्राप्तांक के साथ साक्षात्कार होता है, वहां प्राप्तांकों के साथ आपकी भाषा एवं व्यवहार को भी योग्यता का माप दंड मान लिया जाता है अर्थात अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के छात्र ने किसी परीक्षा में 60 % अंक प्राप्त किये और सामान्य जाति के किसी छात्र ने 62 % अंक प्राप्त किये तो अनुसूचित जाति का छात्र अयोग्य है और सामान्य जाति का छात्र योग्य है।

आप सभी जानते है की परीक्षा में प्राप्त अंकों का प्रतिशत एवं भाषा, ज्ञान एवं व्यवहार के आधार पर योग्यता की अवधारणा नियमित की गयी है जो की अत्यंत त्रुटिपूर्ण और अतार्किक है। यह स्थापित सत्य है कि किसी भी परीक्षा में अनेक आधारों पर अंक प्राप्त किये जा सकते हैं। परीक्षा के अंक विभिन्न कारणों से भिन्न हो सकते है। जैसे कि किसी छात्र के पास सरकारी स्कूल था और उसके शिक्षक वहां नहीं आते थे और आते भी थे तो सिर्फ एक। सिर्फ एक शिक्षक पूरे विद्यालय के लिए जैसा की प्राथमिक विद्यालयों का हाल है, उसके घर में कोई पढ़ा लिखा नहीं था, उसके पास किताब नहीं थी, उस छात्र के पास न ही इतने पैसे थे कि वह ट्यूशन लगा सके। स्कूल से आने के बाद घर का काम भी करना पड़ता। उसके दोस्तों में भी कोई पढ़ा लिखा नहीं था। अगर वह मास्टर से प्रश्न

पूछता तो उत्तर की बजाय उसे डांट मिलती आदि। ऐसी शैक्षणिक परिवेश में अगर उसके परीक्षा के नंबरों की तुलना कान्वेंट में पढने वाले छात्रों से की जायेगी तो क्या यह तार्किक होगा।

इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है। पूरी की पूरी

सांस्कृतिक पूँजी, अच्छा स्कूल, अच्छे मास्टर, अच्छी किताबें, पढ़े-लिखे, माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार, पड़ोसी, दोस्त एवं मुहल्ला। स्कूल जाने के लिए कार या बस, स्कूल के बाद ट्यूशन या माँ-बाप का पढाने में सहयोग। क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों के मध्य परीक्षा में प्राप्तांक योग्यता का निर्धारण कर सकते हैं?

क्या ऐसे दो विपरीत परिवेश वाले छात्रों में भाषा एवं व्यवहार की तुलना की जा सकती है?

यह तो लाज़मी है की सवर्ण समाज के कान्वेंट में पढने वाले बच्चे की परीक्षा में प्राप्तांक एवं भाषा के आधार पर योग्यता का निर्धारण अतार्किक एवं अवैज्ञानिक नहीं तो और क्या है?

३- तीसरे और चौथे तर्क का जवाब

भारतीय समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है, जो छः हज़ार जातियों में बंटा है और यह छः हज़ार जातियां लगभग ढाई हज़ार वर्षों से मौजूद है। इस श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था के कारण अनेक समूहों जैसे दलित, आदिवासी एवं पिछड़े समाज को सत्ता एवं संसाधनों से दूर रखा गया और इसको धार्मिक व्यवस्था घोषित कर स्थायित्व प्रदान किया गया।

इस हजारों वर्ष पुरानी श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने के लिए एवं सभी समाजों को बराबर –बराबर का प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु संविधान में कुछ जाति विशेष को आरक्षण दिया गया है। इस प्रतिनिधित्व से यह सुनिश्चित करने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने हक की लड़ाई एवं अपने समाज की भलाई एवं बनने वाली नीतियों को सुनिश्चित कर सके। अतः यह बात साफ़ हो जाति है कि जातियां एवं जातिवाद भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान था।प्रतिनिधित्व ( आरक्षण), इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए लाया गया न की इसने जाति और जातिवाद को जन्म दिया है। तो जाति पहले से ही विद्यमान थी

और आरक्षण बाद में आया है।

अगर आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है तो, सवर्णों द्वारा स्थापित समान-जातीय विवाह, समान-जातीय दोस्ती एवं रिश्तेदारी क्या करता है?

वैसे भी बीस करोड़ की आबादी में एक समय में केवल तीस लाख लोगों को नौकरियों में आरक्षण मिलने की व्यवस्था है, बाकी 19 करोड़ 70 लाख लोगों से सवर्ण समाज आतंरिक सम्बन्ध क्यों नहीं स्थापित कर पाता है?

अतः यह बात फिर से प्रमाणित होती है की आरक्षण जाति और जातिवाद को जन्म नहीं देता बल्कि जाति और जातिवाद लोगों की मानसिकता में पहले से ही

विद्यमान है।

४- पांचवे तर्क का जवाब

प्रायः सवर्ण बुद्धिजीवी एवं मीडिया कर्मी फैलाते रहते हैं कि आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए है, जब उनसे पूंछा जाता है कि आखिर कौन सा आरक्षण दस वर्ष के लिए है तो मुह से आवाज़ नहीं आती है। इस सन्दर्भ में केवल इतना जानना चाहिए कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राजनैतिक आरक्षण जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में निहित है, उसकी आयु और उसकी समय-सीमा दस वर्ष निर्धारित की गयी थी। नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की कोई समय सीमा सुनिश्चित नहीं की गयी थी।

५- छठे तर्क का जवाब

आज की सवर्ण पीढ़ी अक्सर यह प्रश्न पूछती है कि हमारे पुरखों के अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, छल कपटता, धूर्तता आदि की सजा आप वर्तमान पीढ़ी को क्यों दे रहे है?

इस सन्दर्भ में दलित युवाओं का मानना है कि आज की सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूँजी का किसी न किसी के रूप में लाभ उठा रही है। वे अपने पूर्वजों के स्थापित किये गए वर्चस्व एवं ऐश्वर्य का अपनी जाति के उपनाम, अपने कुलीन उच्च वर्णीय सामाजिक तंत्र, अपने सामाजिक मूल्यों, एवं मापदंडो, अपने तीज-त्योहारों, नायकों, एवं नायिकाओं, अपनी परम्पराओ एवं भाषा और पूरी की पूरी ऐतिहासिकता का उपभोग कर रहे हैं।

क्या सवर्ण समाज की युवा पीढ़ी अपने सामंती सरोकारों और सवर्ण वर्चस्व को त्यागने हेतु कोई पहल कर रही है?

कोई आन्दोलन या अनशन कर रही है?

कितने धनवान युवाओ ने अपनी पैत्रिक संपत्ति को दलितों के उत्थान के लिए

लगा दिया या फिर दलितों के साथ ही सरकारी स्कूल में ही रह कर पढाई करने की पहल की है?

जब तक ये युवा स्थापित मूल्यों की संरचना को तोड़कर नवीन संरचना कायम करने की पहल नहीं करते तब तक दलित समाज उनको भी उतना ही दोषी मानता रहेगा जितना की उनके पूर्वजों को।

याद रखिये

मंदिरों में घुसाया जाता है .....

जाति देखकर

किराये पर कमरा दिया जातै है...

जाति देखकर

होटल में खाना खिलाया जाता है..

जाति देखकर

कमरा किराये पर दिया जाता है..

जाति देखकर

मकान बेचा जाता है...

जाति देखकर

शादी विवाह कराये जाते है

जातिया देखकर,,,

वोट दिया जाता है..

जाति देखकर

मृत पशु उठवाये जाते है..

जाति देखकर

गाली दी जाती है..

जाति देखकर

साथ खाना खाते है..

जाति देखकर

बेगार कराई जाती है..

जाति देखकर

धिक्कारा जाता है..

जाति देखकर

बाल काटे जाते है..

जाति देखकर

ईर्ष्या पैदा होती है..

जाति देखकर

बलात्कार होते है ...

जाति देखकर

पर बेशर्मों आपको आरक्षण चाहिये आर्थिक आधार पर......

जाति आधारित समाज में समता के लिए आरक्षण लोकतांत्रिक राष्ट्र में अत्यावश्यक है...

क्योंकि जाति है तो आरक्षण है.....

जातियां समाप्त करो

आरक्षण अपने आप संमाप्त हो जायेगा !

आरक्षण हमारी मांग नहीं थी , वरन 'प्रथक निर्वाचन' थी | एक बार फिर से उठाकर देख लो 'पूना पैक्ट' |

आरक्षण हमें 'प्रथक निर्वाचन' की मांग के बदले में दिया गया है |

अगर तुमने आरक्षण हटाने की बात की तो हम फिर से अपनी मांग 'प्रथक निर्वाचन' के लिए लड़ेंगे

जय भीम, जय भारत

~ साभार मिशन आंबेडकर
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7 टिप्‍पणियां:

  1. आरक्षण हजारों साल से सत्ता एवं संसाधनों से वंचित किये गए समाज के स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है।?????हजारों साल पहले जो अनारक्षित वर्ग का समय जन है वो क्या राजा महाराजा था क्या ये सब फर्जी आधार हैं और कुतर्क है

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  2. प्राप्तांक के साथ साक्षात्कार होता है???गलत लम्बे समय से रेलवे की नॉन गजेटेड पोस्ट्स और अन्य विभागो द्वारा सिर्फ लिखीत परीक्षा के आधार पे भारती हो रही है

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  3. इस सवर्ण समाज के बच्चे के पास शिक्षा की पीढ़ियों की विरासत है। पूरी की पूरी????१९०१ का लिटरेसी रेट पता है भारत का तो ये विरासत की बात सिर्फ बकवास है १९०१ उअनी आज से सिर्फ ११६ साल पहले भारत का लिटरेसी रेट ५ % के आस पास था ठीक से पढ़े लिखे एक परसेंट भी नहीं थे

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  4. छः हज़ार जातियां लगभग ढाई हज़ार वर्षों से मौजूद है।????ये डाटा कहाँ से मिल गया मनगढ़ंत डाटा ????जातियों का वर्गीकरण रिसले ने किआ था नाक की मोटाई के आधार पर वो भी उनिस्वी शताब्दी में

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  5. बात साफ़ हो जाति है कि जातियां एवं जातिवाद भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान था।////कोई प्रमाण है क्या ?????

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  6. मंदिरों में घुसाया जाता है .....

    जाति देखकर?????तिरुपति पूरी वैष्णोदेवी बद्रीनाथ केदारनाथ सब बड़े मंदिर हैं वहां क्या जाती पता करने के मीटर लगे हैं क्या -कुछ हद तक गांवो में जातिवाद होगा।
    लेकिन शहरों में बिलकुल भी जातिवाद नही और न ही शहर की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी में ये सब करने का समय रहता है।
    लेकिन फिर भी आप पाएंगे की आरक्षण के लाभार्थी में सबसे अधिक शहरों में रहने वाले लोग हैं।

    इससे इनका ये तर्क स्वतः ही ध्वस्त हो जाता है की जातिवाद है इसलिए आरक्षण है।

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  7. लेखक जातीय मानसिकता से ग्रस्त है।

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