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गुरुवार, 12 मई 2016

राजाराम की बलि दी गई जोधपुर दुर्ग की नीव मे

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जोधपुर। मेहरानगढ़ के नाम से प्रसिद्ध दुर्ग के साथ अजीबोगरीब कहानी जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि इस दुर्ग की नींव तभी रखी गई जब राठौड़ वंश के समय एक व्यक्ति राजाराम मेघवाल ने खुद को नींव के साथ चुनवाया। 12 मई 2015 को जोधपुर शहर की स्थापना का 556 वर्ष पूरा हो जाएगा। इसी स्थापना दिवस के मद्देनजर मेहरानगढ़ दुर्ग की कहानी पेश कर रहा है।
पंडितों-तांत्रिकों ने नरबलि को बताया जरूरी
मारवाड़ की राजधानी उन दिनों मंडोर हुआ करती थी। राठौड़ वंश के तत्कालीन शासक राव जोधा ने भविष्य को ध्यान में रखते हुए एक नया शहर बसाने की सोची। इसके लिए वर्तमान जोधपुर शहर के स्थान का चयन कर चिड़ियानाथ टूंक नाम की पहाड़ी की चोटी पर नया दुर्ग बनाने का निर्णय किया गया।
कहा जाता है कि राव जोधा ने नए दुर्ग का निर्माण शुरू करने से पूर्व पंडितों और तांत्रिकों से परामर्श किया। उन सभी की राय थी कि किसी भी बड़े कार्य की सफलता के लिए आवश्यक है कि किसी नर की बलि दी जाए। इस कारण किले की नींव में यदि किसी जीवित व्यक्ति को पत्थरों के साथ चुनवा दिया जाए तो राठौड़ राजवंश को कभी पराभव के दिन नहीं देखने को मिलेंगे। इस राय से सहमत हो राव जोधा ने मारवाड़ में मुनादी करवा दी। उस दौर में राजा की ओर से उनके हरकारे गांव-गांव जाकर ढोल-नगाड़ों को बजा राजा का फरमान सुनाया करते थे।


राजा का फरमान - चाहिए आत्मबलिदानी


राजा की आज्ञा की पालना में हरकारों ने गांव-गांव जाकर घोषणा की कि राव जोधा मारवाड़ की नई राजधानी का निर्माण करने जा रहे है। इसके लिए किसी ऐसे स्वामी भक्त वीर पुरुष की आवश्यकता है जो दुर्ग की नींव में स्वयं को जीवित गाड़े जाने के लिए अपनी मर्जी से पेश कर सके। ऐसे साहस के धनी व्यक्ति को ढेरों पुरस्कार के साथ ही उसके परिजनों और वंशजों को जोधपुर में रहने व खेतीबाड़ी के लिए पर्याप्त जमीन दी जाएगी। ऐसा वीर पुरुष 12 मई को सुबह चिड़ियानाथ की टूंक की पहाड़ी पर अपने आत्मबलिदान को पहुंच जाए।


शुरुआत में कोई नहीं आया आगे
राव जोधा ने तो मुनादी करवा दी, लेकिन जीते जी स्वयं के आत्मबलिदान को कौन तैयार होता। ऐसे में जितने मुंह उतनी बाते, लेकिन सामंतशाही के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी। कई दिन निकल गए लेकिन आत्मबलिदान को कोई सामने नहीं आया। आखिरकार 12 मई का दिन आ गया। चिडिय़ानाथ की टूंक पहाड़ी पर नींव के मुहूर्त की तैयारियां शुरू हो गई। राजा के साथ ही पंडित व जागीरदार सहित बड़ी संख्या में पूजा की तैयारियों में जुट गए। सभी को आत्मबलिदानी का इंतजार था, लेकिन कोई आगे नहीं आया।


आगे आया राजिया


निराशा में डूबे राव जोधा ने घोषणा कर दी कि मुहूर्त का समय नहीं चूकना चाहिए। इसलिए नींव भरने का कार्य शुरू किया जाए। नींव भरने का कार्य शुरू होता उससे पूर्व शांत वातावरण में एक आवाज गूंजी- ठहरो। सभी उस आवाज की तरफ देखने लगे। एक व्यक्ति आगे अाया और बोला मैं नींव में स्वयं की आहुति देने को तैयार हूं। इस पर राव जोधा ने उसका नाम पूछा तो उसने बताया राजिया भाम्बी। राव जोधा ने एक बार फिर उससे पूछा और उसने सहमति जताते हुए कहा कि इस कार्य के लिए देय सारी सुविधा अभी दी जाए। इस पर उसे जमीन का पट्टा व दस हजार रुपए नगद प्रदान किए गए। राव जोधा के आदेश पर जमीन का पट्टा उसकी पत्नी व पुत्र के नाम कर दिया गया।


...और जा खड़ा हुआ नींव में


अगले ही पल राजाराम कूद कर नींव भरने के स्थान पर पहुंच गया। मुहूर्त देख पंडितों ने मंत्र पढ़ने शुरू किए और कारीगरों ने राजाराम के चारों तरफ पत्थरों की चुनाई शुरू की। राजिया मूकदर्शक बना सभी को निहारता रहा। देखते ही देखते राजिया को पत्थरों में चुन नींव का एक हिस्सा बना दिया। बाद में राजाराम के चुने जाने के स्थान के ठीक ऊपर पंडितों की सलाह से दुर्ग का खजाना बनाया गया। राजिया के तन पर खड़ा यह दुर्ग साढ़े पांच सौ बरस से कितने ही झंझावतों का साक्षी बन आज भी खड़ा है। यह दीगर बात है कि जिस राठौड़ वंश के राज्य के लिए राजिया ने आत्मबलिदान दिया वह अब अक्षुण्ण नहीं रह पाया। देश की आजादी के बाद लोकतंत्र में अब राजशाही नहीं रही, लेकिन राव जोधा का बनवाया यह दुर्ग अभी भी सीना ताने गर्व के साथ राजिया के तन पर खड़ा है।
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